क्रांति

Karunehs ji with then vice president of India Hon'able Shankar Dayal Sharma
करुणेश जी तत्कालीन उपराष्ट्रपति महामहिम शंकर दयाल शर्मा के साथ

चिरंतन स्मृतियाँ

२७ सितंबर, १९४० की रात की जिस समय बेलनगंज चौराहे पर स्थित भव्य इमारत “बरौलिया बिल्डिंग” के बाहर परंपरागत ढंग से बनाए गये सुरुचि पूर्ण बैठने के सीड़िनुमा स्थल पर अचानक बम विस्फोट हुए तो चारों तरफ कोलाहल और हाहाकार मच गया. मैं उस समय घटना स्थल से कुछ ही दूर बेलनगंज चौराहे पर मौजूद था. वह सारा कांड मेरी आँखों देखी हुया है. हमारा निवास स्थान भी उन दिनों बरौलिया बिल्डिंग के बगल में ही था. उस समय श्री रामलीला कमेटी कार्यक्रम के अंतर्गत राम बारात निकल रही थी और बारात के लिए निर्धारित समूचे मार्ग पर स्त्री-पुरुषों और बालकों की भारी भीड़ जमा थी. बरौलिया बिल्डिंग का बाह्य भाग काफ़ी लंबा है. उसके आगे लकड़ी के शहतीरों से महत्त्वपूर्ण आमंत्रित लोगों के लिए सीड़िनुमा बैठने का स्थल बनाया जाता था. यह इतने विशाल आकर का होता था की इस पर बैठ कर हज़ारों लोग राम बारात की शोभा यात्रा देखा करते थे. इन दर्शकों में अधिकांश अभिजात वर्ग के होते थे और तत्कालीन जिला एवं पुलिस अधिकारियों के बैठने एवं स्वागत सत्कार की और भी उत्क्रश्ठ व्यवस्था की जाती थी. शाशक वर्ग को प्रसन्न रखने के का पुराने जमाने में वही तरीका था. उसमें आगरा शहर की संस्कृति, व्यावसायिक एवं कारीगरी की वस्तुओं की चलती फिरती दर्शनीय दुकानें भी होती थी. बिक्री के लिए ही नहीं प्रदर्शन के लिए भी, और यह प्रदर्शित . के लिए की हमारा शहर कितनी विशेषताओं से को अपने में समेटे हुए हैं. राम बारात का एक खास आकर्षण यह हुया करता था कि उसके बीच घोड़ो पे सवार होकर आगरा के जिला माजिस्ट्रेट, जो उन दिनों अंग्रेज हुया करते थे, और उस समय एस. पी. हार्डी जिला माजिस्ट्रेट थे तथा नगर पालिका के चेयरमैन राय बहादुर सेठ ताराचंद समूची शोभा यात्रा के दौरान निकला करते थे. सेठ ताराचंद आमतौर पर ब्रिजीश पहने होते थे और उनकी मूंछे छल्लेदार एवं ऐंठी हुई होती थी. बारात में इन दोनों की घुड़सवारी का अपना एक आकर्षण हुया करता था. ये लोग अपने घोड़ों से कहीं कहीं उतरा करते थे, बरौलिया बिल्डिंग उनमें से एक स्थान था.

जैसे ही भीड़-भाड़ भरे माहौल में बम विस्फोट हुए, तहलका मच गया, कई लोगों को चोटें आईं, जिनमें से कुछ युवकों से मैं भी परिचित था. उन्हें लहुलुहन अवस्था में बहुत द्रुत गति से अस्पताल पहुँचाया गया. आला अफ़सर घटना स्थल से सुरक्षित रूप में हटा दिए गये. भीड़ एकदम काई की तरह बिखर गयी, शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि बमों की निकटवर्ती रेलवे पुल से फेंका गया था और फेंकने वाले राष्ट्रीय आंदोलन के कोई क्रांतिकारी क्र्यकर्ता रहे होंगे. तत्काल ही यह किसी को जानकारी नहीं हुई कि यह सनसनीखेज कांड करने वाले देशभिमानी वीर कौन थे, जिन्होंने अपने प्राण हथेली पर रखकर यह काम किया. उस समय उस प्रकार के कांडो को करने का उद्देश्य किसी किए प्राण लेना न होकर विदेशी सत्ता के विरुद्ध भारतीय जनता के असंतोष को उद्वेलित अथवा प्रदर्शन करना हुया करता था. उस समय उस उद्देश्य की सिद्धि निस्संदेह हुई, ऐसे लोग बहुत कम होंगे जिन्हें उस बम विस्फोट और उससे घायल हुए लोगों की घटना के संबंध में कोई सदमा पहुँचा हो. अधिकतर मन ही मन प्रसन्न ही थे की स्वतंत्रता संघर्ष की मशाल को जलाए रखने के प्रयास जारी हैं. कालांतर में मेरा परिचय श्री रोशन लाल गुप्त करुणेश, श्री वासुदेव गुप्त, श्री मदन लाल आज़ाद, श्री रामप्रसाद भारतीय एवं कई और क्रांतिकारियों से हुया और तब पता चला की कलक्टर हार्डी को निशाना बना कर फेंके गये मान के कांड में रोशन लाल गुप्त एवं वासुदेव गुप्त अग्रणी थे. इन लोगों के देशभक्ति पूर्ण दुस्साहस को देखकर उनके प्रति हृदय श्रद्धा से भर आता था और पुलकित को उठता था.

मदनलाल आज़ाद बेलनगंज के निकटवर्ती मोहल्ले पथवारी के साधारण परिवार के थे, खड़ी पहनते थे और अनेक क्रांतिकारी कार्यों में अग्रणी रहने वाले थे. उन दिनों एक गुप्त पर्चा छ्पा, जिसका शीर्षक था — “आगामी गदर के लिए तैयार रहो”. एक दिन की बात है, जब मैं बेलनगंज चौराहे पर धनीराम मर्चेंट की दुकान पर खड़ा था और वहीं श्री मदनलन आज़ाद सामान्य ढंग से इधर उधर देखते हुए बातें कर रहे थे. देखते ही देखते उन्होने अपनी बंद मुट्ठी में भारी हुई लेई से बेलनगंज चौराहे पर आज तक खड़े हुए पोस्ट आफ़िस के विशाल लेटर बॉक्स पर पोत दी और अपनी जेब से वही गदर वाला पर्चा निकाला और चिपका कर नौ दो ग्यारह हो गये. इस पर्चे का लगना था कि उसे पढ़ने वालों का ताँता उमड़ पड़ा. इसमें देशवासियों का आह्वान किया गया था कि वे विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने और मातृभूमि की मुक्ति हेतु विद्रोह के लिए तत्पर रहें. जब तक बड़े अधिकारियों के साथ पुलिस चौराहे पर पहुँची तब तक सैकड़ों लोग उस पर्चे को पढ़ चुके थे. पुलिस ने डंडा फटकरते हुए भीड़ को तितर-बितर किया और फिर पर्चे के ऊपर पानी लगा कर बड़ी जुगत के साथ उस तरह से उखाड़ा, ताकि वह फटे नहीं और पढ़ा जा सके. उस घटना से बड़ा कौतुहल मचा और इसको करने में भी रोशनलाल गुप्त करुणेश, वासुदेव गुप्त, मदनलाल आजाद आदि की मंडली का ही हाथ था. ऐसे ही बेशुमार कार्य आज़ादी के आंदोलनों के दिनों में इस मंडली के द्वारा किये गए और जन जागरण किया जाता रहा. मंडली का प्रत्येक व्यक्ति “सर बांध कफन्वा हो शहीदों की टोली निकली” की भावना से अभिभूत था.

करुणेश जी को लिखने-पढने का चाव था और इनमें साहित्यिक प्रतिभा थी, जो आज भी है. यह अपने को दूसरों की अपेक्षा क्रन्तिकारी आंदोलनों की गतिविधियों और तौर तरीकों के स्वाभाविक रूप से अधिक परिचित रखते थे और मंडली के अन्य साथियों का मार्ग दर्शन करने में सक्षम थे. इसके अलावा इनमें विभिन्न विस्फोटक पदार्थ तैयार करने एवं प्रयोग करने की क्षमता थी. ऐसे ही एक प्रयोग के समय हुए एक विस्फोट के कारन इनकी नेत्र ज्योति बुरी तरह प्रभावित हो गयी थी. क्रांतिकारियों की यह मंडली अपने में मस्त और मगन थी. मेरा ख्याल है की उस समय के स्थापित कांग्रेस नेतृत्व में न तो उनकी आस्था थी और न स्थापित नेतृत्व द्वारा इन्हें कोई महत्व दिया जाता था. इन्हें उसमें से महत्व पाने की कोई आकांशा भी नहीं थी बल्कि देश के स्वतंत्रता संघर्ष को आगे बढाने के लिए ये लोग जो कार्य उचित समझते थे, स्वयं को जोखिम में दाल कर किया करते थे. इनके एक साथी रघुनन्दन गुप्ता को स्मरण करना भी उचित ही रहेगा को उस मंडली के सक्रिय सदस्य थे और भरा हुआ विदेशी जिनकी कमर में हमेशा छिपा रहता था.

राष्ट्रिय स्वतंत्रता संग्राम में स्वतंत्रता सेनानियों का योगदान अपने अपने ढंग से अलग अलग रहा है. एक समूह-प्रवाह गाँधी जी के नेतृत्व में चलने वाला अहिंसावादी था तो दूसरा शहीदे-आज़म भगत सिंह – चंद्रशेखर आज़ाद – राम प्रसाद विस्मिल आदि से प्रेरणा लेकर चलने वाला था. लक्ष्य दोनों का एक हो था – विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकना और मात्रभूमि को बंधन मुक्त करना. क्रन्तिकारी भगवानदास माहौर का यह निष्कर्ष सोलहों आने सही है कि राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की यह दोनों धाराएँ कैंची के दो फलों के सामान थी – एक दुसरे की पूरक भी और प्रेरक भी. दोनों ही प्रकार के समूहों में हर जगह थोड़े थोड़े हो कार्यकर्ता ऐसे हुए जिन्होंने अपेक्षाकृत अधिक जोखिम उठाये और नेतृत्व कर सकने की क्षमता प्रदर्शित की. श्री रोशन लाल गुप्त “करुणेश” उनमें से ही एक हैं.

करुणेश जी स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी राष्ट्रवादी भावनाओं को उद्वेलित करने और एक परिपक्व इंकलाबी समाज के निर्माण के लिए प्रयत्नशील रहे हैं. इनकी ओजस्वी लेखनी से शहीदों एवं क्रांतिकारियों की वीर गाथाओं पर सैकड़ों लेख और कवितायेँ लिखीं गयीं और उनका प्रकाशन पत्रों में होता रहा. करुणेश जी के साथ परस्पर वार्तालाप में मैंने कभी भी कोई घटिया दर्जे की बात उनके मुंह से नहीं सुनी. किसी व्यक्ति के निजी गुण दोषों पर भी वे कभी नहीं गए. उनसे कोई चर्चा हुयी तो देश की दशा और देश के प्रश्नों पर ही. वे एक प्रखर राष्ट्रवादी और प्रगतिशील द्रष्टिकोण वाले हैं. मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ कि मेरा उनसे निकट संपर्क रहा है. इन दिनों वह बीमार हैं, और मैं भी बीमार हूँ. उनके जीवन कि देश को अधिक आवश्यकता है, अतः मेरी भगवान् से प्रार्थना है कि उन्हें शीघ्र स्वस्थ करें और उन्हें, कम से कम, जीवन का शतक पूरा करना का अवसर दें.

डोरीलाल अग्रवाल
(संस्थापक संपादक “अमर उजाला”, आगरा)

१२ जून, १९८७.

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